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Laal Singh Chaddha Movie: ‘मजहब कभी-कभी मलेरिया फैलाता है’ डायलॉग से याद आए प्रेमचंद

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Laal Singh Chaddha Movie: मैं यह बताना चाहता हूं कि अगर मैं लाल सिंह चड्ढा फिल्म बनाता (हालांकि अब मैं इस फिल्म को क्यों बनाऊंगा, जब उसे आमिर बना ही चुके हैं) तो मेरी बनाई फिल्म में आमिर की बनाई फिल्म से क्या हटकर होता। मैं आमिर की लाल सिंह चड्ढा से क्या चीजें हटाता और अपनी तरफ से इस फिल्म में क्या जोड़ता।

हिंदी साहित्य में ऐसे प्रश्न बहुत आते हैं कि अगर आप ‘गोदान’ लिखते तो ‘प्रेमचंद’ के ‘गोदान’ से क्या हटाते और अपनी तरफ से क्या जोड़ते? या अगर आप ‘मैला आंचल’ लिखते तो ‘रेणु’ के ‘मैला आंचल’ से क्या हटाते और अपनी तरफ से क्या जोड़ते? इन सब सवालों के उत्तर लिखने की मैंने खूब प्रैक्टिस की हुई है। दरअसल, इनके उत्तर लिखने के फॉर्मेट्स हैं। ज्यादा मौलिक कुछ नहीं लिखना होता, बस बने बनाए फॉर्मेट में वाक्यों को सेट कर देना होता है।

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ऐसे प्रश्नों के उत्तर की शुरुआत इस भाव से करता हूं कि ‘मेरी कौन गति ब्रजनाथ’। कहां आमिर खान और कहां मैं। आमिर को फिल्मों में काम करने का तीस साल का अनुभव है और दूसरी तरफ मैं अनुभवहीन युवक। उसने थ्री ईडियट्स, धूम-3, दंगल जैसी हिट सुपरहिट फिल्में दी हैं और मैंने एक शॉर्ट फिल्म तक नहीं बनाई। (हालांकि दो चार टिकटॉक वीडियो बनाए थे, लेकिन इतने घटिया बने कि उनके साथ टिकटॉक को भी डिलीट कर दिया)। तो भइया फिल्मों के मामले में आमिर खान के सामने अपन कुछ भी नहीं हैं। आपको लग रहा होगा कि मैं आमिर की तारीफ करके अपने को सरेंडर किए दे रहा हूं। अंत में फिल्म में कोई बदलाव नहीं करूंगा और उसकी बनाई फिल्म को ही अच्छी मान लूंगा। पर ऐसा नहीं है भाई। ये मेरी स्ट्रेटजी है। पहले मैं लेखक या फिल्म मेकर की तारीफ करता हूं और अपने को कमजोर बताता हूं। इससे मैं विनम्र नजर आता हूं। पहले से ही उस स्टैब्लिश रचनाकार या फिल्ममेकर की धज्जियां उड़ाना शुरू कर दूंगा, तो घमंडी और कमअक्ल लगूंगा। मैं अपना असली रंग तो बाद के पैराग्राफ में दिखाऊंगा।

जैसे किसी विदेशी रचना का हिंदीनुवाद किया जाता है, उसी तरह लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड फिल्म फॉरेस्ट गंप का हिंदी संस्करण है। रचनाओं को केवल हिंदी भाषा में अनूदित कर दिया जाता है, जबकि फिल्मों के हिंदी संस्करण बनाने में बहुत सारी चीजें बदलनी पड़ती हैं। मैंने अनुवादकों द्वारा किया गया चेखव की कहानियों का अनुवाद पढ़ा है, उन्होंने बहुत मेहनत की है, लेकिन अनुवादक और भाषा की अपनी सीमाएं होती हैं। फिल्मों में नाम, जगहें, घटनाएं, परंपराएं व मान्यताएं भी बदलनी पड़ती हैं।

जैसे किसी विदेशी रचना का हिंदीनुवाद किया जाता है, उसी तरह लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड फिल्म फॉरेस्ट गंप का हिंदी संस्करण है। रचनाओं को केवल हिंदी भाषा में अनूदित कर दिया जाता है, जबकि फिल्मों के हिंदी संस्करण बनाने में बहुत सारी चीजें बदलनी पड़ती हैं।

फॉरेस्ट गंप में स्थान अमेरिका है, इसलिए वहां की राजनीतिक घटनाओं का जिक्र है। वहां के कल्चर को दिखाया गया है। मगर लाल सिंह चड्ढा में स्थान भारत है, इसलिए यहां की राजनीतिक घटनाओं के बारे में सूचनाएं दी गईं हैं। इमरजेंसी, भिंडरावाले के खिलाफ स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई, इंदिरा गांधी की हत्या, चौरासी के दंगे, राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा, ओबीसी आरक्षण का विरोध, बाबरी मस्जिद विध्वंस, कारगिल युद्ध और अन्ना आंदोलन तक का जिक्र किया गया है। मुझ जैसे आदमी के लिए यह देखना तो पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडियन हिस्ट्री के रिवीजन जैसी बात थी। मुझे इसकी अच्छाइयां नहीं बतानी चाहिए। मुझे तो बस यह बताना चाहिए कि इसमें मैं क्या जोड़ूंगा और क्या हटाऊंगा।

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एक बार फॉरेस्ट गंप देखने के बाद छोटा भाई मुझे जबरदस्ती दोबारा इस फिल्म को दिखा चुका है। इसलिए इस फिल्म के लगभग सभी सीन मुझे याद हैं। लाल सिंह चड्ढा फिल्म में आमिर ने इसकी काफी चीजें बदलकर पेश की हैं। स्कूल में फॉरेस्ट का एडमिशन कराने के लिए फॉरेस्ट की मां प्रिंसिपल के साथ देह का सौदा करती है, लाल सिंह चड्ढा में ये चीज बदल दी गई है। वह प्रिंसिपल के लिए खाना बनाने, घर की साफ सफाई करने और बर्तन धोने की बात कहती है; लेकिन तभी प्रिंसिपल का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बिना किसी फेवर के ही लाल सिंह का एडमिशन कर देता है। मैं अपनी फिल्म में इसे जैसे का तैसा ही रखता। यथार्थवाद दिखाना है, तो पूरी तरह दिखाओ। उसमें आदर्शवाद क्यों घुसेड़ना। शायद आमिर ने सोचा होगा कि भारत की जनता की उपचेतना में अब भी आदर्शवाद भरा है। गांधी के देश के लोग हृदय परिवर्तन पर अब भी भरोसा करते हैं। इसलिए वे इसे भी यथार्थ ही मान लेंगे। सुलभ यथार्थ नहीं, पर दुर्लभ यथार्थ तो हो ही सकता है। ढूंढने पर देश भर में पचास ऐसे प्रिंसिपल तो मिल ही जाएंगे।

पर मैं चरम यथार्थवादी आदमी हूं। मैं तो ऐसे प्रिंसिपलों को ही फिल्मों का कैरेक्टर बना सकता हूं, जो मुझे खुलकर बता देते हैं कि फीस अस्सी हजार रुपये है। अगर आप क्लास अटेंड नहीं कर पाएंगे तो नब्बे हजार रुपये। क्योंकि फर्जी अटेंडेंस, टेस्ट, प्रैक्टिकल का अलग से दस हजार। एग्जाम में हेल्प चाहिए तो सुविधा शुल्क के रूप में दस हजार रुपये। इस तरह एक लाख सालाना पड़ेगा। अभी जमा कर दोगे तो एक हजार डिस्काउंट दूंगा। सॉरी आमिर आपका यथार्थवाद से कन्नी काटकर आदर्शवाद की शरण में जाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा।

उस फिल्म में हीरो फॉरेस्ट गंप श्वेत है और फिल्म में अश्वेतों के साथ हो रही भेदभाव पूर्ण घटना का जिक्र है। फॉरेस्ट का नजरिया इस भेदभाव के खिलाफ है। आमिर इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में जातिगत भेदभाव को दिखाते हुए इसका विरोध कर सकते थे, लेकिन वे इसको बरकाकर निकल गए। फॉरेस्ट गंप में जेनी का बाप उसका यौन शोषण करता है जो कि फॉरेस्ट के इस कथन से स्पष्ट होता है कि “जेनी के फादर बहुत प्यार जताते, वे हर दिन जेनी और उसकी बहनों को चूमते और हाथ लगाते थे।” आमिर की फिल्म में रूपा के पापा उसकी मां की हत्या कर देते हैं। उसे अपनी बेटी का यौन शोषण करने वाला नहीं दिखाया गया। यह तर्क देना कि भारत में बाप बेटी का यौन शोषण नहीं करता, गलत है; क्योंकि मैं पत्रकार होने की वजह से महीने में एक दो ऐसी खबरें अपनी निगाहों से गुजरते देख ही लेता हूं। यह मान सकता हूं कि अमेरिका के मुकाबले भारत में पति अपनी पत्नी को ज्यादा पीटते हैं, इसलिए आमिर पत्नियों के साथ होने वाले अत्याचार को दिखाना चाहते हैं।

उस फिल्म में हीरो फॉरेस्ट गंप श्वेत है और फिल्म में अश्वेतों के साथ हो रही भेदभाव पूर्ण घटना का जिक्र है। फॉरेस्ट का नजरिया इस भेदभाव के खिलाफ है। आमिर इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में जातिगत भेदभाव को दिखाते हुए इसका विरोध कर सकते थे, लेकिन वे इसको बरकाकर निकल गए।

फॉरेस्ट गंप में लेफ्टिनेंट डैन अमेरिकन सैनिक है, जबकि लाल सिंह चड्ढा में मोहम्मद पाकिस्तानी सैनिक। देशभक्ति का एंगल घुसाने में हिंदी फिल्मों को पाकिस्तान को हराने, पश्चाताप कराने की तकनीक की आवश्यकता पड़ती ही है। इसमें आमिर ने भी यही किया है। बॉलीवुड अब तक पाकिस्तान को नीचा दिखाए बिना देशभक्ति को प्रस्तुत करने का नया तरीका नहीं ढूंढ पाया है। फॉरेस्ट गंप में युद्ध के विरोध में अभियान चलाने वालों का पक्ष भी दिखाया गया है। लाल सिंह चड्ढा में ऐसा कुछ भी नहीं है। फॉरेस्ट पिंग पॉन्ग खेलता है, लेकिन लाल सिंह नहीं खेलता। मैं कोशिश करता कि आमिर के मुकाबले कुछ और समस्याओं को खोलते हुए फिल्म आगे बढ़ाता।

फिल्म में एक डॉयलॉग है कि मजहब कभी-कभी मलेरिया फैलाता है। मुझे कहानीकार प्रेमचंद याद आ गए। उन्होंने अपनी कहानियों में धर्म को लोगों का शोषण करने वाला बताया है। लेकिन प्रेमचंद अपनी बात बिना अगर मगर किए, खुलकर पेश करते हैं। वास्तव में धर्म ज्यादातर मामलों में आदमी के शोषण का कारण है। ऐसा लगता है कि आमिर प्रेमचंद की ही बात को कहना चाहते हैं, लेकिन उनका स्वर दबा हुआ है। वह ‘कभी-कभी’ लगा देते हैं। प्रेमचंद और आमिर में तुलना हो ही नहीं सकती। दोनों की प्राथमिकताएं भिन्न हैं। प्रेमचंद का मूल उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन है, जबकि आमिर का एक उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन हो सकता है; मगर साथ में पैसा कमाना भी है। उन्हें लफड़ों से बचना भी है।

फिल्म में बायकॉट करने लायक कुछ भी नहीं है, फिर भी बायकॉट हो रहा है, इसलिए आमिर का थोड़ा सतर्कता बरतना गलत नहीं है। चूंकि मैं प्रेमचंद की परंपरा का आदमी हूं और आज के जमाने की प्रमुख समस्याओं में धार्मिक अंधविश्वास और सांप्रदायिकता ही हैं, तो स्वाभाविक है कि मैं इन मुद्दों को फिल्म में ठीक ठाक समय देता।

फिल्मों के बारे में ज्यादा ज्ञान तो नहीं है, लेकिन नाटकों के आधार पर इसका शास्त्रीय विवेचन तो कर ही सकता हूं। आमिर खान ऐसी फिल्में बनाते हैं, जो न तो पारसी थिएटर की परंपरा को बढ़ाते हुए रोमांचक दृश्यों, फूहड़ डायलॉगों, अश्लीलता, हिंसा की भरमार कर दें। और न ही अपने उद्देश्य को स्थापित करने के लिए नैतिक डायलॉगों से भरी, भावना शुष्क और बोरिंग वीडियो क्लास बना दें। वे मध्यम मार्ग चुनते हैं। फिल्म में शिष्ट हास्य भी रहे, थोड़ी नैतिकता भी, आवश्यकतानुसार हिंसा और यौनिकता। अगर मैं फिल्म बनाऊंगा तो शायद मैं भी कुछ ऐसी ही फिल्म बनाऊंगा। ऊपर जो बताया वैसे ही कुछ छुटपुट बदलाव करके इसी तरह फिल्म बनाता।

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NOTE: मैं फिल्म समीक्षा में उपयोग होने वाली शब्दावली से ज्यादा परिचित नहीं हूं और मुझे परंपरागत समीक्षाएं पसंद भी नहीं। मुझे कुछ हटकर ही अच्छा लगता है। दूसरी बात मुझे नहीं पता फिल्म में अलग अलग चीजों के लिए कौन कौन जिम्मेदार होता है, इसलिए निर्देशक, एक्टर, फिल्ममेकर, राइटर सब कुछ आमिर खान को मानते हुए मैंने उसी संबोधित करते हुए यह बकवास लिखी है। इस अज्ञानता के लिए मुझे क्षमा करें।


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