शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव

Share on Social Media

ग्रामीण आंचलिक कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव 2023 में प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन की महागाथा है। गांव में रहने वाले किसान, दलित व महिलाओं की हालात सबसे ज्यादा खराब होती है, इसलिए वंचितों के प्रवक्ता कहे जाने वाले शिवमूर्ति ने अपने उपन्यास अगम बहै दरियाव के जरिए इन्हीं वंचितों को मुख्य धारा की चर्चा में लाने का प्रयास किया है।

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव ऐसे समय में आया है, जब किसानों के बेटे खुद किसानी छोड़कर अन्य मजदूरी व अन्य व्यवसायों की तरफ भाग रहे हैं। संचार क्रांति के दौर में लोग पारंपरिक किसानी को उपेक्षित काम समझते हैं। किसान अन्य व्यवसायों की तुलना में लगातार पिछड़ रहे हैं। क्योंकि सरकारें किसानों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देतीं। व्यापारी कृषि उपजों को सस्ते में खरीद कर मोटा मुनाफा कमाते हैं। बैंक किसानों को लोन देती हैं, लेकिन बारिश बवंडर के चलते फसल नष्ट हो गई, तो किसान के खेत जब्ती की नौबत आ जाती है। शिवमूर्ति के उपन्यास अगम बहै दरियाव में इन्हीं सब समस्याओं की ओर ध्यान खींचने का प्रयास किया गया है।

उच्च जातियों के जमींदारों द्वारा गरीब जनता के शोषण को शिवमूर्ति ने अपने उपन्यास में बखूबी चित्रित किया है। किस तरह छत्रधारी ठाकुर अपनी दबंगई से किसी की भी जमीन पर धन बल बाहुबल के चलते कब्जा कर लेते हैं। शिवमूर्ति पूरी ईमानदारी के साथ इसका चित्रण करते हैं। शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के शोषण की दास्तान भी सुनाता है।

दलितों पिछड़ों की राजनीतिक चेतना समय के साथ कैसे विकसित हुई और कैसे सत्ता तक पहुंची। अगम बहै दरियाव उपन्यास में शिवमूर्ति एक इतिहासकार की तरह कड़ी से कड़ी जोड़कर बताते हैं। मान्यवर कांशीराम जी द्वारा दलितों में जगाई गई राजनीतिक चेतना से सुश्री मायावती मुख्यमंत्री पद तक पहुंचती हैं। इसके बाद दलित पार्टी का ब्राह्मणीकरण भी शिवमूर्ति की नजरों से छुपा नहीं है, वे इसे भी इस उपन्यास में दिखाते हैं। दलित पार्टी में दलितों की अवहेलना के दृश्य भी इस उपन्यास में हैं।

इमरजेंसी से लेकर अब तक गाथा

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव इमरजेंसी से लेकर अब तक की गाथा सुनाता है। इमरजेंसी का गांव में कैसा असर था। लोगों तक जानकारी मिर्च मसाले के साथ मिश्रित होकर किस तरह अफवाहों के रूप में पहुंचती है। नसबंदी कानून को गांव के लोग क्या मानते हैं, यह गांव की महिलाएं सोचती हैं कि “इंदिरा गांधी को खुद के आदमी का सुख मिला नहीं, इसलिए सबके आदमी को बधिया करने पर तुली हैं।”

इमरजेंसी के बाद पिछड़ों और दलितों में राजनीतिक चेतना धीरे-धीरे कैसे विकसित हुई चरण दर चरण इस उपन्यास में दर्ज है। मंडल कमीशन के तहत ओबीसी आरक्षण लागू हुआ। इसके विरोध में राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ। कारसेवा के नाम पर जो ड्रामा हो रहा था, शिवमूर्ति उसे बड़ी ही बारीकी से समझ रहे थे। इस उपन्यास में उन सबकी असलियत खुलकर सामने आई है।

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव

दलितों की राजनीतिक चेतना विकसित होने के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन 2012 आते आते वे बदल गईं। दलित केंद्रित राजनीति का ब्राह्मणीकरण होने लगा और दलित कार्यकर्ता की अवहेलना होने लगी। यह बहुजन समाज पार्टी की अवसान बेला थी। उसके बाद बसपा लगभग डूब गई। शिवमूर्ति की नजर इस पर भी है, क्योंकि उपन्यास के अंतिम हिस्सों में कुछ ऐसे दृश्य हैं।

ग्रामीण जीवन की बेहतर समझ

शिवमूर्ति ने एक साक्षात्कार में बताया था कि उन्हें गांव की बेहतर समझ है, लेकिन शहरी जीवन की उतनी गहरी समझ नहीं है। इसलिए वे गांव के जीवन को ही अपनी रचनाओं में शामिल करते हैं। शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव पढ़कर गांव के जीवन की बेहतर समझ हासिल की जा सकती है।

उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि हमें जानना है कि बारिश से गांव के जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है। यह उपन्यास पढ़कर पता चलेगा कि अलग-अलग समय में हुई बारिश लोगों पर कैसा प्रभाव डालती है। किसी बारिश से किसान खुश है, लेकिन कच्ची झोपड़ियों में रहने वाले लोग परेशान भी हैं। उपन्यास में व्यक्त ऐसी ही बहुत सारी परिस्थितियों, घटनाओं से ग्रामीण जीवन की बेहतर समझ विकसित होगी।

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव ग्रामीण जीवन पर वैचारिक पुस्तकों से कहीं बेहतर समझ देगा।

लोकगीतों का सुंदर कलेक्शन है अगम बहै दरियाव

शिवमूर्ति का उपन्यास अगम बहै दरियाव लोकगीतों का सुंदर कलेक्शन है। इसमें ढेरों लोकगीत हैं। शिवमूर्ति कोई भी कहानी हो, वे लोकगीतों का उपयोग करना नहीं भूलते। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपना कहानी उपन्यासों में ढेरों लोकगीतों का उपयोग किया है, उसी तरह शिवमूर्ति भी करते हैं। यह लोकगीत रत्न की तरह हैं।

हर परिस्थिति के लिए उन्होंने लोकगीत के रूप में एक नगीना चुना है। उदाहरण के रूप में गन्ना मिल के सामने प्रदर्शन करने जाते हुए कर्ज से दबे पांडे गाते हैं-

“देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गए…”

अगम बहै दरियाव है एक रिसर्च दस्तावेज

आमतौर पर उपन्यास या कहानीकारों द्वारा रिसर्च करने का चलन नहीं है, लेकिन शिवमूर्ति जी ने इस उपन्यास के लिए ढेर सारी मेहनत की है। यह उपन्यास पढ़कर ही पता चलता है कि उन्होंने कितनी रिसर्च की है। लोकगीत चुन-चुनकर रखे हैं। इस उपन्यास में ढेर सारी ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र है, जो एकदम सही हैं। शिवमूर्ति जी ने न जाने कितने बूढ़े-बुजुर्गों से बात करके जानकारी प्राप्त की है।

अदालती प्रक्रिया में आम आदमी को किन किन मुश्किलों से गुजरना पड़ता है, लगभग सभी चीजें दर्ज हैं। दलितों को अपने जीवन में किन किन मुश्किलों से गुजरना पड़ता है, बहुत सारी चीजें इस उपन्यास में हैं। यह अनायास नहीं हैं, इनके लिए शिवमूर्ति ने गहरी रिसर्च की है, यह उपन्यास पढ़ने से मालूम होता है।

निष्कर्ष

कुलमिलाकर शिवमूर्ति का उपन्यास ग्रामीण जीवन की महागाथा है। शिवमूर्ति वंचितों के प्रवक्ता हैं इसलिए उन्होंने गांव के दबे कुचले लोगों की कहानी लिखी है। जिनको ताकतवरों ने दबाया, शिवमूर्ति उनके संघर्ष को लिखते हैं। गांव में सबसे अधिक दबाए जाने वालों में से किसान, दलित और स्त्री हैं। शिवमूर्ति मानते हैं कि स्त्री सबसे अधिक शोषित है। इस उपन्यास के लिए शिवमूर्ति जी को 2024 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है। हालांकि यह फैसला अकादमी के मेंबर्स का होगा।  

सरयू नदिया कहर घाघरा

अगम बहै दरियाव रे भई

अगम बहै दरियाव।


Share on Social Media